विषय - स्पर्श
विधा - स्वतन्त्र
कर दो मुझे अपने
प्यार के बंधन से मुक्त
और मुक्त कर दो मुझे
कई आडंबरों से,
जिनका सहारा लेकर
तुम मुझे विवशता के
घेरे में खींच लेते हो,
मुझे तो पहले ही
मान लेना चाहिए था
कि जीवन का
हेर - फेर तो मात्र भ्रम है।
आज प्रकृति मुझे
अपने आगोश में
छुपा लेना चाहती है
वो पुकारती है मुझे,
अपनी ममतामयी
चादर को ओढ़कर
वो समेट रही है
मुझे धीरे - धीरे,
चूम रही है मुझे,
मेरे ही अंदर
समा रही है वो
और कर रही है
स्पर्श मेरे अंग - अंग को
और कह रही है जैसे
कि तुम भी
प्रकृति ही हो मेरी तरह
तो फिर हमारा
जुदा होना कैसा
सारी हिचकिचाहट को हटा
नारीत्व को समाप्त कर दो
और बस याद रखो
एक निर्झर गान
जो हमेशा तुम्हें
आभास कराएगा
मेरे स्पर्श का
मेरे अनुराग का
और
मेरे कभी न खत्म
होने वाले प्यार का।
शशि देवली
गोपेश्वर चमोली उत्तराखण्ड