ना वन साथ लेकर गये संग उसे तुम यूं विरह में उसको क्यों इतना जलाया, रही होगी उसकी काया महल में हदय से तो उसने भी वनवास पाया - दीपक सती

विरह की वेदना


लखन तब निठुर तुम हुए क्यों थे इतने
कि उर्मिल को तुमने रुलाया भी ना था 
रही पूरे चौदह बरस दूर तुमसे
आंखों से आंसू बहाया भी ना था ।


ना वन साथ लेकर गये संग उसे तुम
यूं विरह में उसको क्यों इतना जलाया
रही होगी उसकी काया महल में
हृदय से तो उसने भी वनवास पाया |


सब तो विरह में नयन को भिगाते
वो जब याद आते तो अश्रु बहाते 
उर्मिल तो बांधी रही अश्रु लोचन में 
ऐसा वचन उसको दे तो ना जाते ।


सुनो नाथ वन में भटकते-भटकते
 मेरी याद आई तो होगी विचरते
प्रभु राम-सिया की सेवा में खोये
या दिन रात रहते तुम्हारे गुजरते |


सुनो री हे उर्मिल करो यूं ना बातें
ना उर चीर सकता दिखाने को यादें 
ये सच है दिवस मेरी सेवा में रत थे
मगर बिन तुम्हारी ना बीती थी रातें|



 कभी कोसता था स्वयं को मैं वन में
कभी मांगता था क्षमा मन ही मन में 
क्यों लाया तुम्हें ब्याह करके अवध में 
जो जाना तुम्हें छोड़ था मुझको वन में।



©दीपक सती प्रसाद
चमोली गोपेश्वर