भाग १
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आखिर मेरा कसूर क्या है?
यही कि मैं एक लड़की हूं।बचपन से बार- बार हर क्षण मुझे यही आभास कराया जाता है कि मैं लड़की हूं मुझे समाज के बनाए हुए नियमों के अनुसार जीना है।मुझे जो सोचना है वह भी समाज के दायरे में रहकर ही सोचना है।किसी अन्यत्र परिवेश कि कल्पना मात्र भी मेरे लिए अपराध जैसा है।
आज के परिप्रेक्ष्य में कहा जाता है कि समाज बदल चुका है पर क्या सही मायनों में समाज बदला है? और समाज की क्या बात करते हैं क्या हम और हमारी सोच स्त्री जीवन के प्रति बदली है। बिल्कुल नहीं।आज भी जन्म और मरण के बीच सांसों की कड़ी सी पिरोती जिन्दगी को धकेल रही है वो। कैसे रहना है कैसे चलना है कैसी नौकरी करनी है कैसे कपड़े पहनने हैं और यहां तक कि किससे बात करनी है और किससे नहीं ये भी पुरुष ही निर्णय लेगा।वो चाह कर भी अपने विचारों का आदान-प्रदान स्वेच्छा से नहीं कर सकती।
नारी जीवन पर पुरुष की हुकूमत की परंपरा कब समाप्त होगी।अगर स्त्री खूबसूरत है उसे बात करने का सलीका है वह अपने शारिरिक बनावट के मुताबिक कपड़ों का चयन करती है और स्वयं को समाज के बीचों बीच स्थिरता से टिके रहने का प्रयास करती है उसके आसपास के लोग उसकी प्रशंसा करते हैं तो कुछ लोगों को तकलीफ क्यों होती है।
अरे देखो तुम न स्कर्ट मत पहना करो लोग क्या कहेंगे। उफ्फ -ओ इतना जोर से मत हंसा करो यार आसपास वालों की नजर इधर हो जाती है। साड़ी ब्लाउज में न बदन की बनावट झलकती है सलवार सूट ही पहना करो यार मुझे अच्छा नहीं लगता जब सब देखते हैं तुम्हें।मेरे दोस्त पता नहीं क्यों अक्सर तुम्हारी प्रशंसा क्यों करते हैं कुछ चक्कर वक्कर तो नहीं है। अच्छा आज तुम अपने ऑफिस के बाॅस के साथ मर्सिडीज में घर लौटी इतना वक्त था उनके पास तुम्हें घर छोड़ने का और भी कई बेहुदे से सवाल जो जिन्दगी को मुहाल कर देते हैं। अगर किसी लड़की के मन में न भी हो कुछ ऐसा वैसा तो वो भी सोचने पर मजबूर हो जाए कि मैंने गलती कर दी कि अब क्या हो माफी या सजा।
बात करते हैं जमाने की,अरे ओ लड़की तुम्हारी ब्रा की सट्रेप दिख रही है , फुल स्लीव्स पहना करो बेटा,कप साइज क्या है,काफी बड़े हैं ब्रेस्ट, हां ये परफैक्ट है और कम है तो अरे यार फीगर ही नहीं है।जीन्स में शेप वाव क्या हिप्स हैं, पटेगी या नहीं ।औरत का जिस्म न हुआ जैसे ऑफर में लगा हुआ कुछ सामान है जिसका विश्लेषण सब अपने-अपने खास तरीके से प्रस्तुत करते हैं और आसानी से पाने की चाह रखते हैं, नहीं तो गन्दी नजरों से देखने वालों की कहां कमी है घूरते रहो औरत के जिस्म को जी भरके।
ये घटिया सोच स्त्री के चरित्र को अलग अलग तरीके से बयां करती हुई दिखाई देती है। जन्म के समय कोख में अगर बेटी है तो पैदा ही नहीं होने देना।उफ्फ ऐसी मानसिकता किस समाज के स्तर की कल्पना को दर्शाता है। पीरियड्स होने पर अछूतों की तरह व्यवहार करना,पूजा नहीं करना,अचार नहीं खाना मगर ये नहीं सोचते कि सभी इसी गन्दे खून से ही जन्म लेते हैं।
घर में रहो तो तुम क्या जानो नौकरी करनी क्या होती है।तुमको आता क्या है बस - बस तुम अपनी राय मत दिया करो।दिन भर तो बैठी रहती हो गप्पें मारती हो क्या जरूरत है पड़ोसियों से इतनी बात करने की। नौकरी में अच्छा काम करो मेहनत से और प्रमोशन हो तो कहीं बाॅस के साथ कुछ लफड़ा तो नहीं।अरे इस समाज ने और पुरुष ने अपने पुरुषार्थ को बचाने के लिए कब- कब वार नहीं किया औरत के दिल पर,जिस्म पर, भरोसे पर और दिमाग पर।सीता और द्रोपदी की दशा को देखकर आसानी से स्त्री जीवन की परिभाषा का अनुमान लगाया जा सकता है। कुछ नहीं बदला आज भी। शिक्षा का स्तर चाहे कितना ही व्यापक सोचने पर मजबूर करे मगर विकृत मानसिकता का स्तर आज भी घटिया का घटिया ही है। अच्छा खाना और अच्छा रहन-सहन कभी ये बयां नहीं करता कि वर्तमान समय में महिलाओं की स्थिति दयनीय नहीं है।साठ प्रतिशत महिलाएं आज भी मन से विक्षिप्त हैं ।भरोसे की बुनियाद को ढोते - ढोते वह उम्र के आखिरी पड़ाव में भी दीन - हीन ही हैं।
स्वयं अपने को आदर्श समझने वाला पुरुष कितनी भी औरतों के साथ हमबिस्तर रहे वह फिर भी महान है। अपनी कमाई भोग विलास में उड़ाए तो भी महान है मगर स्त्री मुस्कुराए भी तो गन्दी सोच वाले न्यौता समझकर उसे चरित्रहीन घोषित कर दें।
कागजों पर और बड़े - बड़े मंचों पर एक स्त्री होना बहुत बड़ा सम्मान हो सकता है मगर वास्तविक जीवन में एक स्त्री होना बहुत कठिन है तथा और भी कठिन तब हो जाता है जब वह खूबसूरत हो, गुणी हो और ज्ञानी भी हो। हमें लगता है वर्तमान समय में हमारी सरकार और समाज बेटी के जन्म से लेकर शिक्षा स्वास्थ्य और सुरक्षा को लेकर काफी सजग है मगर सोच तो आज भी कूप मण्डूक ही है।बार- बार सशक्तिकरण के नाम पर आदर्श महिलाओं की गणना की जाती है उपदेशों का अंबार लग जाता है वाह नारी हो तो ऐसी मगर दरवाजे के पीछे उसके सिसकते स्वर आज भी उसकी वेदना को बयां करते हैं।हर क्षेत्र में अवहेलना की शिकार होती वो एक कोने में अपनी महफूज जगह तलाशती है मगर गन्दी नजरें उसे वहां भी नहीं छोड़ती जब सामने की डेस्क पर बैठा अस्सी साल का बुजुर्ग उसकी छाती पर नजरें गड़ाए हुए है।
रूह के छलनी होने की कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं है आगे जारी रहेगी स्त्री पीड़ा। भाग २ का इंतजार करें।
सर्वाधिकार सुरक्षित
शशि देवली
गडोरा चमोली
उत्तराखण्ड