विषय - वैधव्य की पीड़ा
विधा - छंद मुक्त
किसने बना दिया विधवा का जीवन ये अभिशाप है।
किसने कहा कि विधवा का मुस्कुराना पाप है।।
पापी निर्दयी ये समाज क्यों जिह्वा की तेज धार करे।
अरे वो क्या जाने वैधव्य की पीड़ा जो सोलह श्रृंगार करे।।
क्यों खिलखिलाहटें भी विधवा की इस समाज ने झांँकी हैं।
माथे का सिंदूर है रुठा पर सांँसे तो तन में बाकी हैं।।
माना उसकी चूड़ी कंगन बिछिया ने साथ छोड़ दिया।
पर क्रूर वक्त से ज्यादा उसका दिल इस समाज ने तोड़ दिया।।
उसके आने जाने हंँसने सब पर बंदिश लग गई।
मानो उसके पीछे कोई सदियों की रंजिश लग गई।।
वो लड़े तकदीर से अब या इस समाज से वो लडे़।
मर्यादा की सीख दें जो या जुल्मी बाज से वो लड़े।।
बच्चों की खातिर जो उसने मन को पक्का कर लिया।
शगुन अपशगुन कहकर फिर जग ने उसको भौचक्का कर दिया।।
हजम कर सकी कहांँ ये दुनिया उसकी ये मजबूती तब।
मिल गई हांँ बेचारी को कई रिश्तों से आहुति तब।।
हंँसी जो उसके लब पर आई कहाँ इस समाज से सहा गया।
फर्क नहीं कुछ इसे पडा़ हांँ ये भी तो तब कहा गया।।
टूटा दिल आंँखों में आंँसू अब यही विरासत है उसकी।
हंँसी के पीछे जो पीड़ा है बस अब यही तो किस्मत है उसकी।।
स्वरचित
सुनीता सेमवाल "ख्याति"
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड