(झील के उस पार )
झील के उस पार घर है मेरा,
तैर के उसमें जाऊँ,
कभी बहे तेज धारा,
कभी हो गती धीमी,
उसमें साहस की पतवार चलाऊ।
किनारे खड़े हैं जैसे भीड़ तरुवर की,
देखते सुबह -शाम चेहरा अपना,
तुम्हे ऐसा दृश्य दिखलाऊं ।
निकलती पर्वतों के बीच से,
धारा अमृत सी अविरल बह रही है,
छू कर निकलती है,
घर के बगल से मेरे,
चलो ऐसा एहसास तुम्हे कराउं।
तुम भी चलो झील के उस पार,
देख लो छोटा सा घर मेरा,
जहां हर पल सुकून में पाऊं ।
आती सुबह की स्वर्ण किरने ,
छूकर झील के शीतल जल को,
आया जगाने जैसे सोए तन को,
खुल गई हों जैसे बंद आंखे,
ऐसा एहसास मैं पाऊं।
खिल गई पंखुडी बंद कमल की,
दिखती जो घर से मेरे,
देख लो तुम भी घर मेरा,
चलो तुमको भी दिखलाऊं।
झील के उस पार घर है मेरा,
तैर के उसमे जाऊँ ।।
चन्द्र मोहन सिंह
धारकोट किमसार