पहाड़ों में अंधकार को उजाले से रोशन करने वाला एकमात्र साधन-लम्पू
बात सदियों पुरानी हो या वर्तमान की हो पहाड़ों में जब भी बिजली जाती है तब हमारे पास एक ही साधन होता है लम्पू, जो कई सालों से हमारे घर के अंधकार को दूर करने में हमारा उजाले का साथी होता था भले ही वर्तमान में पहाड़ों में कई गांव सुविधाओं से सुसज्जित हो गए हैं पर कई गांव आज भी सुविधाओं से वंचित हैं। जहां आज भी रोशनी का एकमात्र साधन लम्पू होता है।
अब अगर बात करूं साठ सत्तर के दशक की तो समूचे पहाड़ में बिजली से तो क्या ही जगमगाई होगी पर लोगों ने अपने लिए जीवन जीने के संसाधनों को जुटाने के भरकस प्रयास किए होंगे। जीवन के अंधकार और शिक्षा के अंधकार को मिटाने के लिए पहाड़ों में लोगों की अपनी अलग तरकीब रही है। पुराने समय में लोग रात के अंधकार को दूर करने के लिए चीड़ के पेड़ के छिलके ( पेड़ की जड़ की तरफ का भाग) का उपयोग करते थे लोगों की रोजमर्रा की जीवन शैली में लकड़ी निकलना एक विशेष काम होता था।मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाना सबसे शुद्ध और स्वादिष्ट होता है और आग जलाने के लिए इन्हीं छिलकों को ही उपयोग में लाया जाता था लोग एक दिन में इतनी लकड़ियां और छिलके एकत्रित कर लेते थे जिससे महीने भर उनका गुजारा हो सकता था और इन्हीं छिलकों के सहारे सारी समाजिक गतिविधियां भी सम्पन्न होती थी। कोई भी कारज हो वो चाहे शादी विवाह का हो या कोई भी देव कार्य हो इन्हीं छिलकों के सहारे सारे काम अच्छी तरह से निपटाए जाते थे जिस घर का जो आयोजन होता पूरे गांव के लोग उस परिवार का सहयोग करते। सारे काम आपसी मेलजोल से किए जाते। लकड़ी निकालने में छिलकों का अपना एक विशेष महत्व होता था और क्योंकि पुराने समय में यातायात के साधनों का न होना भी एक बहुत बड़ी चुनौती थी तो जब कभी किसी का रिश्ता दूर दराज इलाके में होता था जहां बारात ले जाने लाने में 5-6 दिन लग जाते थे तो लोग बीच में पड़ने वाले पड़ावों की सारी सुविधाओं को जुटाकर रखते थे छिलके से बनने वाली मशाल बनाकर रात का सफर तय करते थे इस मशाल से सिर्फ बारातें ही नही लोग पढ़ाई लिखाई के लिए भी इसी छिलके का उपयोग करते थे खासकर दीपावली के त्यौहार में आज तक इन छिलकों का विशेष महत्व (भैलु बनाने में) होता है।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है और जरूरत आविष्कार की जननी। धीरे-धीरे जब कैरोसिन पहाड़ पहुंचा तो अपने साथ लम्पू भी पहाड़ के अंधकार को दूर करने पहाड़ पहुंच गया और गिने चुने घरों में देखने को मिलता था, क्योंकि लम्पू जलाने के लिए कैरोसिन/ मिट्टी के तेल की आवश्यकता भी होती है और मिट्टी का तेल हर घर में होना असम्भव होता था गांव के धनवान घरों में ही लम्पू जलते हुए देखा जाता था गरीब परिवारों का जीवन वही छिलके की रोशनी में आबाद था और बिजली होना तो वो सपने में भी नहीं सोचा करते थे फिर धीरे-धीरे,जैसे-जैसे जिस परिवार की आर्थिकी सही होती गई वैसे-वैसे लम्पू ने हर घर में अपनी एक विशिष्ट जगह बना ली।
जीवन की पहली किताब उस रोशनी के नाम थी जिसे हम लम्पू कहते हैं यानि कि जिसे हम लैंप कहते है वह आज के जैसा लैंप बिल्कुल भी नहीं था। उसकी रोशनी की अलग ही चमक और अलग ही अदायगी अलग ही निराली थी,पढ़ाई से लेकर घर के हर छोटे बड़े काम में इसकी एक अलग ही जगह थी घर की रोशनी को चमकाने वाला ये लम्पू अपना एक विशेष स्थान बनाए हुए था। दिन ढलते ही उसमें मिट्टी का तेल डालना उसकी बत्ती को ऊपर करना जैसे रोज का काम था और तो और बाजार से खरीदे लम्पू की नकल करने की कोशिश में घर में कांच की बोतल का भी लम्पू बना रहता था, और हर घर में लम्पू रखने की एक नियत जगह होती थी, वो चाहे पढ़ाई का कमरा हो या रसोई घर हो या फिर गाय भैंस बांधने की जगह।सब जगह रोशनी का एकमात्र साधन लम्पू होता था इसी लम्पू की रोशनी में पढ़ने वाले पहाड़ों से कई ऐसी प्रतिभाएं रही हैं जो देश विदेश के कई विशिष्ट,उच्च प्रतिष्ठित पदों पर विराजमान रहे।
आज हम इक्कीसवीं सदी में हैं पर हमारे पहाड़ों में कई ऐसे गांव हैं जहां बिजली नहीं पहुंची है। और अगर कहीं दूर दराज के गांव में पहुंची भी है तो कभी कभी ही बिजली रहती है।क्योंकि प्राकृतिक आपदाएं आंधी,तूफान,तेज बारिश से ज्यादातर समय बिजली गुल ही रहती है जबकि उत्तराखंड देश में बिजली उत्पादन में हमेशा अग्रणी रहा है। हम आज भी इसी लम्पू के सहारे जीवन जीने को विवश हैं। ये लम्पू पहले भी हमें रोशनी से जगमगाता था और अब भी जगमगा रहा है।